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भेदभाव पूर्ण जाति तथा वर्ण व्यवस्था का परिणाम यह हुआ कि शूद वर्ग निर्धन, अशिक्षित बनकर पशुवत जीवन जीता रहा
“ब्राह्मण को चाहिए कि निर्भय होकर शूद्ध का द्रव्य लेवे क्योंकि शूद्र का अपना कुछ नहीं, उसका धन उसके स्वामी (ब्राह्मण का ही है।”
(मनुस्मृति 8-417)
यदि यज्ञ के दो या तीन अंग अपूर्ण रह जाये तो इनकी सिद्धि के लिए धार्मिक शूद्र का धन बलपूर्वक चोरी से ले आये क्योंकि शूद्र यज्ञ से असंबंधित रहता है।”
(मनुस्मृति- 11-13)
“धन कमाने की शक्ति रखते हुए भी शूद्र को धन का संचय कदापि न करना चाहिए क्योंकि धन प्राप्त करके वह ब्राह्मणों को सताने वाला होता है।”
(मनुस्मृति-10-129)
वर्ण व्यवस्था हमेशा से वर्ण स्वार्थ को पूरा करने और शोषण व्यवस्था को लगातार बनाये रखने का साधन रहा है तथा इसके बनाने वालों ने बड़ी कुटिलता से इसे पिरामिड की तरह सीढ़ीनुमा रूप दिया और अपने को सबसे सुरक्षित तथा श्रेष्ठ स्थान पर रखा है देखिए
जो अपने संचित अन्न के ढेर से ब्राह्मणों को दान नहीं करता वह चोर और पापी है। उसे ब्रह्मण हत्या करने वाले के समान समझना चाहिए।”
( पाराशर स्मृति 2/16)
“संसार में जो कुछ भी है वह सब ब्राह्मणों का है। ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न तथा कुलीन होने के कारण वह सब धन का अधिकारी होता है।”
(मनुस्मृति 1/100)
जाति के अनुसार ब्याज दर भी शूद्र वर्ग पर सबसे अधिक था-
“ब्राह्मण से दो रुपया सैकड़ा, क्षत्रिय से तीन रुपया सैकड़ा, वैश्य से चार रुपया सैकड़ा तथा शूद से पाँच रुपया सैकड़ा ब्याज लेना चाहिए।”
(मनुस्मृति- 8-142)
शूद्र निर्धन बना रहे, वह धन कमाने की सामर्थ्य रखते हुए भी धन कमा कर धनवान न बन पाये यदि इसके विरुद्ध वह धन कमाकर घनी हो जाये तो राजा उसका धन ही न छीन ले बल्कि उसको भी देश निकाला दिलवा दे।
“धन कमाने की शक्ति रखते हुए भी शूद को धन का संचय कदापि न करना चाहिए क्योंकि धन प्राप्त करके वह ब्राह्मणों को सताने वाला होता है।”
(मनुस्मृति – 10-129)
जाति के अनुसार ब्याज दर भी शूद वर्ग पर सबसे अधिक था-
“ब्राह्मण से दो रुपया सैकड़ा, क्षत्रिय से तीन रुपया सैकड़ा, वैश्य से चार रुपया सैकड़ा तथा शूद्र से पाँच रुपया सैकड़ा ब्याज लेना चाहिए।”
(मनुस्मृति 8-142)
शूद्र निर्धन बना रहे, वह धन कमाने की सामर्थ्य रखते हुए भी धन कमा कर धनवान न बन पावे। यदि इसके विरुद्ध वह धन कमाकर धनी हो जाये तो राजा उसका धन ही न छीन ले बल्कि उसको भी देश निकाला दिलवा दे।
वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत ने 80 प्रतिशत बहुजन शूद्र वर्ण को अधिकार विहीन बनाकर हजारों वर्षों से उनका शोषण किया है और उक्त व्यवस्था को भगवान की व्यवस्था, पुनर्जन्म का सिद्धांत, भाग्यवाद आदि के कारण शूद को इतना पंगु बना दिया है कि वह अन्याय के खिलाफ संघर्ष की बात सोच भी न सके। इसलिए वे पशुवत शारीरिक श्रम करके भी दयनीय स्थिति के खिलाफ विद्रोह न कर सके।
इसके स्थान पर वे पूर्व जन्म के बुरे कर्मों को कोसते रहे, भाग्य में जो लिखा है भोगना है की बात को धारण किए रहे।
“जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिये” वाली सूक्ति को मानकर सदियों से चलते रहे।